Sunday, August 16, 2009
वर्षा - विरह
Saturday, August 8, 2009
एक गीत आज अपने लिए भी
(यह गीत आठ अगस्त को लिखा गया था पर
कंप्यूटर प्रॉब्लम के कारण विलंब से ब्लॉग हुआ ) एक गीत आज अपने लिए भी आज तिरासी पार हो गए स्मृति-पट पर धुंधले चित्र बनते और बिगड़ते हैं , मीठे खट्टे अनुभव के पल सजते और सिहरते हैं बचपन तथा किशोर वयस के सपने तार तार हो गए आज तिरासी ....... कपडे नए, नए जूते थे राजकुमारों से लगते थे , गौनई मंजीरे ढोलक पर गुलगुले बतासे बँटते थे माँ के हाथों दूध-बतासा- तिल, के दिन दुश्वार हो गए आज तिरासी ..... भरी जवानी में इतराया छोडूं क्या स्वीकार करुँ, भीड़ लगी रहती आँगन में किसको कितना प्यार करुँ फूलों के वे सब गुलदस्ते ढली उमर तो खार हो गए .... आज तिरासी ..... हुए अधेड़ समय खप जाता लाभ-हानि के गुणा- भाग में परिवारिक दायित्व निभाते खींच तान जो मिला हाथ में उलझे समीकरण सुलझाते कुछ सुलझे कुछ उधार हो गए आज तिरासी ..... आठ दशक बीते जीवन के आ घेरा पत्नी-वियोग ने , शुरू हो गई उलटी गिनती डाला डेरा रोग शोक ने
हारे थके हुए मांझी के
डांडे बीच धार खो गए आज तिरासी .......
अब नहीं सिमटती साँसों का
उद्देश्य शेष कोई अपना ,
शब्द-सृजन की पूंछ पकड़
वैतरणी के पार का सपना
लगन लगी उनसे मिलने की ,
चिता सेज जो यार सो गए आज तिरासी पार हो गए
कमल