Sunday, June 14, 2009

दीप और शलभ

दीप और शलभ (शमा - परवाना ) की युगल प्रेमी के रूप में उपमाओं से साहित्य का भंडार भरा है । पर एक दिन जब मैंने इन दोनों की " तू तू मैं मैं " सुनी तब से दुविधा में पड़ गया हूँ। उनके इस वाक-युद्ध पर स्पष्टीकरण के लिए आपको सादर आमंत्रित कर रहा हूँ ।

दीप - शलभ संवाद

मचलते शलभ ने कहा दीप से,

मौत मेरी तेरी ज़िन्दगी का सफर है

मेरे तरुण प्राण की आहुती पर

युगों से रही ज्योति तेरी अमर है ।

की नीयत

कीट के व्यंग से तिलमिला कर दिए ने

तिरस्कार में सिर हिला कर कहा

उन्माद का एक आवेग था

प्यार की राह में जो सुलगता रहा ।

नियति की नीयत se रहा अविचलित

तापस अंधेरे ki आराधना हूँ,

जलता रहा साथ चलता रहा

बावले उस तिमिर की सफल साधना हूँ !

कमल

Saturday, June 13, 2009

कुछ स्वछन्द करुण-रस छंद

कुछ " स्वछन्द करुण-रस छंद " धवस्त कर मेरा स्वप्नागार प्रिय गए तुम जाने किस लोक , हो गई तापस किरण विलीन निविड़ तम में प्रकाश का लोप ! खो गया पल में हास-निवेश लुटा सुख-स्वप्नों का परिवेश, सजग स्मृतियों के अवशेष , भर गए अंतस में चिर-क्लेश ! नियति की निष्ठुरता का दंश धर गया प्राणों में विष घोल , भर गए अंतस में अभिशाप ये कैसा वरदानों का मोल ? हृदय में मचता हाहाकार वियोगी मन की सुन चीत्कार , अनल सम लगती मलय-बयार मेघ बरसे झरते अंगार , लिए हूँ अधरों पर मुस्कान छिपाए उर में दावानल , जलाये नभ पर तारक-दीप अमा रोती धोती काजल !

कमल ahutee@gmail.com

Friday, June 12, 2009

ज़िन्दगी की शाम

झुर्रिओं भरा चेहरा... गंजे सिर पर इक्का दुक्का सफ़ेद बाल ... मैली बनियायन से झांकती सिकुड़ रही खाल... किसी मध्यवर्गीय परिवार के उस वृद्ध को दरवाजे पर पुराणी कुर्सी में बैठे एक अल-सुबह निराश दृष्टि से आसमान ताकते देखा था। वह आकृति दिन भर मन को मथती रही और रात कविता बन कागज़ पर बिछ गई । अतीत के इस संयोग को पाठकों के साथ बांटना चाहता हूँ। :- "संघर्ष-शील जीवन की शाम " अभी जीवन शेष साथी है अभी उम्मीद बाकी कठिन परिश्रम संघर्षों की, पारियों के सफल नायक, जर्जरित तन व्यथित मन ,तुम न थक कर बैठ जाना ज़िन्दगी की शाम पर घिरते अंधेरे लाँघ जाना भोर के आकाश का आलोक मुठिओं भर लूट लाना। और यूँ अगवा किए आलोक में डूबा लेना रात अमा की ! बिखरते परिवार के परिवेश में, दर्द बनता पीढियों का अंतराल कौन जाने कहाँ जा कर थमेगा इस सदी का मोह-माया-जाल । तुम उपेक्षा का घिनोना गरल पी, कंठ में रख कर जमा लेना और अपनों से मिले अपमान की घूंट कड़वी सब पचा लेना। सह रही है घाव सब कुछ और सह लेगी ये छाती ताकते क्या हो तुम्हें कब रोक पायीं चिर-अगम आकाश की मजबूरियां अरे तुमने तो उछल कर नाप डालीं ,सौरमंडल के ग्रहों की दूरियां उम्र की दहलीज़ पर घिरते तमस के पार जाना , भय न खाना चिर-सृजन का बीज तुम, अमरत्व पी कर लौट आना सृष्टि का वरदान हो तुम अंकुरण की अमर थाती अभी जीवन शेष साथी है अभी उम्मीद बाक़ी कमल ahutee@gmail.com

Tuesday, June 2, 2009

ग़ज़ल

ग़ज़ल प्रीति के सिद्ध सूत्र सब बिसारती रहो , मधु-निशा के निमंत्रण नकारती रहो । जिन पलों के लिए मन तरसता रहे, उन पलों के सगुन तुम बिगाड़ती रहो। छांव पल भर कभी मिल न पाये कहीं, हर मरुथल को पथ पर उतारती रहो। प्राण प्यासे फिरें मृग-मरीचिका में, दृष्टि-पथ पर खड़ी तुम निहारती रहो। प्रीति के चाँद पल यूँ बिछुड़ जांएगे , अधखुले कुन्तलों को संवारती रहो। ज़िन्दगी का सफर इतना आसां नहीं चाहे जो शोखियाँ तुम बघारती रहो। हरसिंगार फूल से गीत झरते "कमल" मीत तुम बिन छुए ही बुहारती रहो। कमल ahutee@gmail.com