Sunday, January 11, 2009
ग़ज़ल
शायरी का सफर
है ये कैसी कशिश ताजगी की इधर
किसकी खुशबू से महकी हुई है सहर ।
जिंदगी का ये कैसा अनोखा पहर
जिसमें बहने लगी शायरी की लहर।
इस चमन के कभी हम परिंदे न थे
ख़ुद-ब-ख़ुद `पर` खींच लाये इधर।
अपनी ऐसी कोई बेबसी भी न थी
चल पड़े जो कदम इस नयी राह पर ।
अटपटी सी डगर का मुसाफिर `कमल`
ख़त्म होगा कहाँ शायरी का सफर।
Monday, January 5, 2009
तमस से लड़ता रहूँगा
काल को निज मुट्ठियों में बंद कर, आलोक से अनुबंध कर मैं
तमस से लड़ता रहूँगा ।
आतंकवाद की सुनामी प्रलयगामी लहर से,
मैं कब डरा हूँ ।
कारगिल के हिम शिखर पर चढ़ विजय का ध्वज लिए,
देखो खड़ा हूँ ।
रोक पायेगा मुझे आकाश क्या, नित ग्रहों के भाल पर
पदचिन्ह मैं जड़ता रहूँगा। \
स्रष्टि के आरम्भ से मैं मृत्यु को अगवा किए ,
नित हलाहल पीता रहा हूँ ।
सिन्धु के अमृत-कलश का दान अस्वीकार कर,
मैं शान से जीता रहा हूँ।
गरल तुम जितना मथोगे, नीलकंठ बना हुवा मैं ,
आचमन करता रहूँगा ।
तुम प्रलय के प्रेत जग में घोर तम से अवतरित,
विध्वंस में तत्पर रहो ।
आतंक के ज्वालामुखी ले विश्व में सक्रिय बने,
नित रक्त से खप्पर भरो ।
अमरत्व का वरदान मुझको, मैं सृजन का बीज हूँ,
अंकुरित बढ़ता रहूँगा ।
दहकते अंगार बरसाते रहो , स्वर्ण हूँ तपकर स्वयं ,
आलोकमय कुंदन बनूँगा ।
भस्म कर दो सृष्टि को तुम, प्राण हूँ मैं संचारित हो ,
पुनः जगजीवन बनूंगा ।
ध्वंस पर निर्माण का संकल्प ले , मैं विजय अभियान के ,
सोपान पर चढ़ता रहूँगा ।
तुम सृजन के प्राणघातक मैं प्रकृति का प्राण-वाहक ,
स्रष्टि का हूँ सजग प्रहरी ।
पार्थ का गांडीव ले अन्याय को ललकारता हूँ,
मैं न सोता नींद गहरी ।
कटु-प्रहारों को तुम्हारे , शक्ति-सर संधान कर मैं,
विफलता मढ़ता रहूँगा ।
स्याह-लेखन में निरत बन,तुम कलंकित अनवरत,
साहित्य को करते रहो।
वांग्मय के धवल अंचल पर परत-डर-परत काजल
पोत कर धरते रहो।
मैं असत की चीर चादर, सत्य बंधन-मुक्त कर,
हुंकार नित भरता रहूँगा।
तमस से लड़ता रहूँगा।
( स्पेल्लिंग मिस्टेक्स रोमन से देवनागरी लिपि लेने के कारण हैं। क्षमा चाहूँगा ..... कमल। )
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