Tuesday, June 2, 2009

ग़ज़ल

ग़ज़ल प्रीति के सिद्ध सूत्र सब बिसारती रहो , मधु-निशा के निमंत्रण नकारती रहो । जिन पलों के लिए मन तरसता रहे, उन पलों के सगुन तुम बिगाड़ती रहो। छांव पल भर कभी मिल न पाये कहीं, हर मरुथल को पथ पर उतारती रहो। प्राण प्यासे फिरें मृग-मरीचिका में, दृष्टि-पथ पर खड़ी तुम निहारती रहो। प्रीति के चाँद पल यूँ बिछुड़ जांएगे , अधखुले कुन्तलों को संवारती रहो। ज़िन्दगी का सफर इतना आसां नहीं चाहे जो शोखियाँ तुम बघारती रहो। हरसिंगार फूल से गीत झरते "कमल" मीत तुम बिन छुए ही बुहारती रहो। कमल ahutee@gmail.com

5 comments:

नीरज गोस्वामी said...

ज़िन्दगी का सफर इतना आसां नहीं
चाहे जो शोखियाँ तुम बघारती रहो

अद्भुत प्रयोग किया है आपने शब्दों से...वाह...बधाई...
नीरज

RAJNISH PARIHAR said...

बहुत ही सुन्दर भाव लिए है आपकी रचना...बधाई....

Kamal said...

आदरणीय नीरज गोस्वामी जी एवं रजनीश परिहार जी,
मेरे ब्लॉग पर आ कर रचना के सम्मान बढ़ाने के लिए आपका आभारी हूँ. आशा है आगे भी आपका आशीर्वाद मिलता रहेगा.
कमल.

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा said...

उपालंभ का अपना माधुर्य है और वह आपकी इस रचना में है.
दारुण पर रमणीय !

http://rishabhuvach.blogspot.com/

Kamal said...

आदरणीय ऋषभ जी,
ग़ज़ल पर आपके आर्शीवाद का बहुत आभारी हूँ.
कमल