Friday, December 17, 2010
सांझ के साये
ऐसा क्यों होता है ?
कोई आये मन बहलाए
बचपन की गलियों में खोयें
प्यार करे माथा सहलाए
माँ की गोदी रख सिर सोयें
कैसे वह अनुभूति भुलाएँ
एकाकीपन की छलनाएँ
प्रात चढ़ी अभिलाषाओं की
डोली सांझ ढले तक लुटती
विफल मनोरथ की कृश-काया
प्रतिपल निश्वासों में घुटती
विगत की विवश स्मृतियों का
भार बुढापा क्यों ढोता है ?
" जाने क्यों ऐसा होता है "
ऐसा क्यों होता है
दशाब्दियों का श्रांत सफ़र
संघर्षों से जूझ जूझ कर
जीवन के अभिशप्त मोड़ पर
जहां खडी हों ठौर ठौर पर
मृतकों की स्थिर प्रतिमाएं
पीछा करती सी छायाएं
माता पिता भाई भगिनी की
कुसमय दिवंगता पत्नी की
मिले तथा बिछुड़े मित्रों की
जुड़े प्रीति के संबंधों की
अंतस में धुन्धुआता अतीत
क्यों बरबस पलक भिगोता है ?
" जाने क्यों ऐसा होता है "
ऐसा क्यों होता है
जो प्रस्तुत क्या वही सत्य है
इसके भी विघटन का भय है
विश्व सतत परिवर्तनमय है
आज का युवा-युग कल क्षय है
किस उपलब्धि की खैर मनाएं
बदल रहीं नित परिभाषाएं
अपनी माटी छोड़ पराई-
माटी में समृद्धि दिखती है
भाषा तथा संस्कृति की भी
अब तो यही नियति लगती है
वैश्विक-संस्कृति के उजास में
नव-विकास की वक्री गति है
भाष-विमर्श पर भी प्रबुद्धजन
बीच न बन पाती सहमति है
चिर-परिचित अतीत से चिपका
मन उसके शव पर रोता है
" जाने क्यों ऐसा होता है "
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1 comment:
जब उम्र की साँझ आती है तो सच ऐसा ही होता है ... पर न जाने क्यों .... बहुत भावभीनी अभिव्यक्ति .... मेरे ब्लॉग पर आने का शुक्रिया
कृपया वर्ड वेरिफिकेशन हटाएँ.... टिप्पणीकर्ता को सरलता होगी ...
वर्ड वेरिफिकेशन हटाने के लिए
डैशबोर्ड > सेटिंग्स > कमेंट्स > वर्ड वेरिफिकेशन को नो करें ..सेव करें ..बस हो गया .
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