Saturday, July 18, 2009
प्रस्तुत कविता " अहिल्या का रोष " नारी की अस्मिता और स्वाभिमान की अभिव्यक्ति है
आपकी प्रतिक्रिया सादर आमंत्रित है
अहिल्या का रोष
तुमने धरे चरण मुझ पर ,
जग ने कहा मैं तर गयी ,
पाषाण-प्रस्तर से पुनः
नारी अहिल्या बन गयी
मतिहीन गति अवरुद्ध थी
निष्पंद थी निष्प्राण थी,
अब हो गई वह शुद्ध क्या
अभिशप्त जो पाषाण थी ?
एक अबला पर निरंतर
पुरूष-पौरुष का प्रदर्शन ,
दंड की भागी वही क्यों
क्या यही है न्याय-दर्शन ?
बन गई पत्थर वहीँ
सुन मनुज का वह श्राप ,
मौन हो सहती रही सब
शीत वर्षा ताप का संताप
पुरूष-प्रधान व्यवस्था में
क्यानारी के ही लिए दंड हो ?
जैसे नारी नारी न हो,
चिर-अभिशप्त शिला-खंड हो ?
छल किया ,वह पा गया
नभ का अतुल साम्राज्य ,
और मैं जो छली गयी
वह बनी क्योंकर त्याज्य ?
इस समाज के शब्द-कोष में
पतिव्रता के साथ पत्नीव्रता ,
जुड़ न पाया शब्द अब तक
हुई नारी ही कलंकित सर्वदा
पाषाणों की भी गरिमा है
यद्यपि मूक अंतर्मुखी हैं,
पर छिपे इनके गर्भ में
आक्रोश के ज्वालामुखी हैं
जब कभी फट जायेंगे यह
तब प्रलय मच जायगी।
उस दिन तुम्हारी स्रष्टि
क्या संहार से बच पाएगी ?
मैं बनी पाषाणी तो क्या
चाहा न था यों मुक्त होना
अस्मिता तज चरण-रज से
मॉस-मज्जा -युक्त होना
नहीं राम ! पग-धूलि नहीं अब
समता का व्योहार चाहिए,
नर -समाज में बराबरी का
स्वयं-सिद्ध अधिकार चाहिए
जन्म-सिद्ध अधिकार चाहिए
कमल ahutee@gmail.com
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2 comments:
यह अधिकार तो बहुत हद तक मिल गया है। अलग अंदाज की यह रचना पसंद आयी।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
आदरणीय श्यामल सुमन जी,
सराहना के लिए आभार | प्रस्तुत कविता जैसा मैंने पहले ही कहा ` नारी अस्मिता और स्वाभिमान की एक अभिव्यक्ति है | आज स्थिति सुधर तो रही है पर अधिकांश क्षेत्रों में आज भी नारी को ही दंड भोगना पड़ता है अधिकांश मामलों में पुरुष नारी की इज्ज़त लूट कर बेदाग़ बरी हो जाता है |
कमल
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