Thursday, July 16, 2009
बरसो रे घन
बरसो रे घन !
अभिषिक्त करो तुम प्रकृति-नटी का
चिर-सुरमई सलोनापन
बरसो रे घन !
कब तक बोझिल अंतरतम में, भरे रहोगे वर्षा का जल
कब तक प्यासा बना रहेगा, तप्त-धारा का अंतस्तल ?
कब तक सूनी राह निहारेगा, विरही मन !
आओ प्रियतम !
बरसो रे घन।
सभी दिशाओं का काजल आँचल में समेट बरबस
कब तक पावस की पूनम, बनी रहेगी रात अमावस ?
मन बंदी असहाय सघन-घन चंदा बंदी बदली-वन !
व्याकुल चकोर मन !
बरसो रे घन !
मनुहारों में घुट कर साजन, बीत न जाए सारा सावन
पल पल बेकल बाट जोहता मेरा विव्हल अनुरागी मन !
चिर-अतृप्त रस-सिक्त करो, प्राणों को परितृप्त करो
ऋतु बने सुहावन !
बरसो रे घन !
कमल
घन चकोर मन !
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2 comments:
सभी दिशाओं का काजल आँचल में समेट बरबस
कब तक पावस की पूनम, बनी रहेगी रात अमावस ?
मन बंदी असहाय सघन-घन चंदा बंदी बदली-वन !
व्याकुल चकोर मन !
बरसो रे घन !
bahut hi sunder abhivyakti badhai
आदरणीय सुश्री महक जी,
गीत की सराहना के लिए आपका आभारी हूँ | उत्तर भारत में बादल तो छाये हैं पर varsha बहुत कम | कुछ इसी भाव से
प्रेरिओत हो कर इस गीत की रचना हुई| पावस ऋतू पर मेरी और भी रचनाएं आपको इसी ब्लॉग पर शीघ्र मिलेंगी|
कमल
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