Sunday, January 11, 2009
ग़ज़ल
शायरी का सफर
है ये कैसी कशिश ताजगी की इधर
किसकी खुशबू से महकी हुई है सहर ।
जिंदगी का ये कैसा अनोखा पहर
जिसमें बहने लगी शायरी की लहर।
इस चमन के कभी हम परिंदे न थे
ख़ुद-ब-ख़ुद `पर` खींच लाये इधर।
अपनी ऐसी कोई बेबसी भी न थी
चल पड़े जो कदम इस नयी राह पर ।
अटपटी सी डगर का मुसाफिर `कमल`
ख़त्म होगा कहाँ शायरी का सफर।
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4 comments:
लाजवाब रचना, कमल जी!
अच्छा है भाई.
अच्छा लिखा है आपने ......ढेरो बधाई ...
अर्श
सराहनीय रचना...लिखते रहें...आप में अपार संभावनाएं हैं...
नीरज
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