Friday, December 17, 2010

सांझ के साये

ऐसा क्यों होता है ? कोई आये मन बहलाए बचपन की गलियों में खोयें प्यार करे माथा सहलाए माँ की गोदी रख सिर सोयें कैसे वह अनुभूति भुलाएँ एकाकीपन की छलनाएँ प्रात चढ़ी अभिलाषाओं की डोली सांझ ढले तक लुटती विफल मनोरथ की कृश-काया प्रतिपल निश्वासों में घुटती विगत की विवश स्मृतियों का भार बुढापा क्यों ढोता है ? " जाने क्यों ऐसा होता है " ऐसा क्यों होता है दशाब्दियों का श्रांत सफ़र संघर्षों से जूझ जूझ कर जीवन के अभिशप्त मोड़ पर जहां खडी हों ठौर ठौर पर मृतकों की स्थिर प्रतिमाएं पीछा करती सी छायाएं माता पिता भाई भगिनी की कुसमय दिवंगता पत्नी की मिले तथा बिछुड़े मित्रों की जुड़े प्रीति के संबंधों की अंतस में धुन्धुआता अतीत क्यों बरबस पलक भिगोता है ? " जाने क्यों ऐसा होता है " ऐसा क्यों होता है जो प्रस्तुत क्या वही सत्य है इसके भी विघटन का भय है विश्व सतत परिवर्तनमय है आज का युवा-युग कल क्षय है किस उपलब्धि की खैर मनाएं बदल रहीं नित परिभाषाएं अपनी माटी छोड़ पराई- माटी में समृद्धि दिखती है भाषा तथा संस्कृति की भी अब तो यही नियति लगती है वैश्विक-संस्कृति के उजास में नव-विकास की वक्री गति है भाष-विमर्श पर भी प्रबुद्धजन बीच न बन पाती सहमति है चिर-परिचित अतीत से चिपका मन उसके शव पर रोता है " जाने क्यों ऐसा होता है "

Thursday, February 11, 2010

हर मुश्किल आसाँ न होगी

तुंग हिमालय से भी ऊंची

होती हैं पथ पर आधएं

Thursday, December 10, 2009

टोपियाँ

टोपियाँ बाढ़ आई टोपियों की लाल,पीली, हरी सिन्दूरी,केसरी दुरंगी, तिरंगी, बहुरंगी या फ़िर सफ़ेद लक-झक गांधी टोपियाँ पहने पंडित-मियां टोपियाँ दलों के दलदलों में दिखाती वर्चस्व अपना इनमें ढँकी खोपड़ियाँ देखती रहतीं दिन रात करोड़ों का सपना संभव हो सकेगा क्या चुनावों के मौसम में इन खोखली खोपड़ियों को ठिकाने लगाना ! कमल

Sunday, August 16, 2009

वर्षा - विरह

वर्षा -विरह स्वाती की बूदों को बन्दी बना ले गया प्यासा सावन नियति-गति मारा पपिहारा पी पी रटता रहा रात भर चैन चुरा कर सावन भागा नींद चुरा ली है भादों ने भरी बदरिया में रीता मन तरसे है सूनी रातों में बीहड़ में भटका बनजारा सी सी करता रहा रात भर निगल गया परदेस पिया को मेरा दुश्मन बन बैठा है पतियाँ लील गया वह सारी जाने क्यों मुझसे ऐंठा है आंसू पोंछ पोंछ ध्रुवतारा छिन छिन तकता रहा रात भर भोर चढ़ी ज्यों विपदा मारी साँझ ढली जैसे अगियारी हवा बही आतप की जारी बूंदों बरस गई चिनगारी बौराया आँगन का सुगना सीटी भरता रहा रात भर सूनी सेज पिया की जैसे फंसी कलेजे बीच कटारी पावस की घन अंधियारी में बीती- यादों की बटमारी सिहर सिहर दीपक बेचारा टिम टिम जलता रहा रात भर काली घटा उमड़ती नभ पर सोई पीर जाग उठती है गहरे पैठी तीस ह्रदय की भीतर ही भीतर घुटती है घनीभूत पीड़ा भर आंसू टप टप झरता रहा रात भर बाहर बरसे मेघ झमाझम भीतर तडपे चिर-विरही मन नभ गरजे दामिनि जब दमके हुड़क हुड़क खनके कर कंगन मंझधारे घिर मन मछुआरा जी जी मरता रहा रात भर संध्या की अलकावालियों में इन्द्रधनुष ने रंग भर दिए शरमाई सरसिज कलियों ने अपने सम्पुट बंद कर लिए मनुहारों मन हारा भंवरा भुन भुन करता रहा रात भर कमल

Saturday, August 8, 2009

एक गीत आज अपने लिए भी

(यह गीत आठ अगस्त को लिखा गया था पर

कंप्यूटर प्रॉब्लम के कारण विलंब से ब्लॉग हुआ ) एक गीत आज अपने लिए भी आज तिरासी पार हो गए स्मृति-पट पर धुंधले चित्र बनते और बिगड़ते हैं , मीठे खट्टे अनुभव के पल सजते और सिहरते हैं बचपन तथा किशोर वयस के सपने तार तार हो गए आज तिरासी ....... कपडे नए, नए जूते थे राजकुमारों से लगते थे , गौनई मंजीरे ढोलक पर गुलगुले बतासे बँटते थे माँ के हाथों दूध-बतासा- तिल, के दिन दुश्वार हो गए आज तिरासी ..... भरी जवानी में इतराया छोडूं क्या स्वीकार करुँ, भीड़ लगी रहती आँगन में किसको कितना प्यार करुँ फूलों के वे सब गुलदस्ते ढली उमर तो खार हो गए .... आज तिरासी ..... हुए अधेड़ समय खप जाता लाभ-हानि के गुणा- भाग में परिवारिक दायित्व निभाते खींच तान जो मिला हाथ में उलझे समीकरण सुलझाते कुछ सुलझे कुछ उधार हो गए आज तिरासी ..... आठ दशक बीते जीवन के आ घेरा पत्नी-वियोग ने , शुरू हो गई उलटी गिनती डाला डेरा रोग शोक ने

हारे थके हुए मांझी के

डांडे बीच धार खो गए आज तिरासी .......

अब नहीं सिमटती साँसों का

उद्देश्य शेष कोई अपना ,

शब्द-सृजन की पूंछ पकड़

वैतरणी के पार का सपना

लगन लगी उनसे मिलने की ,

चिता सेज जो यार सो गए आज तिरासी पार हो गए

कमल

Thursday, August 6, 2009

व्यंग कविता नेता पुराण

नेता - पुराण इन्हें गले लगाइए ये युग-प्रणेता हैं , माला पहनाइए स्वनामधन्य नेता हैं देश में भले ही अभनेता, विधिवेता हैं, भारत में महान सर्वशक्तिमान नेता हैं किसी नगर में गर कमाना घर बसाना है पहले वहां नेता को पूजना मनाना है नेता इस युग के महंत सर्वज्ञानी हैं, किसी अदृश्य-शक्ति के अनंत वरदानी हैं राज-सत्ता इनकी हुक्मबरदार बांदी है , कोई हो सरकार इनकी चाँदी ही चाँदी है इनका आधार भले दलित पिछड़ा वर्ग हो, किंतु घर सजा है जैसे धरती पर स्वर्ग हो कुर्सी की गोटी फिट करने में जगजाहिर हैं, सत्ता में उठक-पटक कला के यह माहिर हैं मंत्रिपद न पायें भला क्या मजाल है, इनको न घास डाले कौन माई का लाल है ? kamal इति नेतापुराण कथा प्रथमोध्याय ( दो अध्याय बाकी हैं )

Tuesday, August 4, 2009

गीत रक्षा-बंधन

रक्षा-बंधन बहन तेरे रक्षा-बंधन को मेरा शत शत अभिनन्दन ! सावन मॉस पूर्णिमा पावन भाई-बहन का पर्व सनातन , इस राखी की साख निभाने हुए निछावर कितने यौवन ! प्रबल आस्था का प्रतीक यह , भारतीय संस्कृति - दर्शन ! राखी के कच्चे धागे यह बने कवच मेरे जीवन का , तेरे ही आशीर्वचनों से महके घर नंदन-वन सा ! रक्षा-बंधन सा इस जग में, नहीं दूसरा कोई बंधन ! रहे प्रभुत्व अनंत तुम्हारा खिलते रहें सुयश के फूल , करें मंगलाचार ऋचाएं स्वस्ति-गान गूंजे दिग्कूल पारंपरिक अनोखा बंधन दो पवित्र रिश्तों का संगम ! बहन तेरे रक्षा-बंधन को मेरा शत शत अभिनन्दन ( इस रक्षा-बंधन पर्व पर आऊँ सबको याद मिले सभी बहनों को यह गीत मेरी सौगात ) कमल कमाल

Sunday, August 2, 2009

( व्यंग कविता ) तुकबंदी जी

तुकबंदी जी एक तुकबंदी जी अचानक पधारे बोले आप पूजनीय अग्रज हमारे नवोदित कवि हूँ कविता सुन लीजिये मैंने कहा स्वागत है आसन ग्रहण कीजिये कहने लगे कविता में झलकता यथार्थ है मैंने कहा सत्य है निराला पदार्थ* है ( * पद + अर्थ ) बोले अर्ज़ किया है आप दाद दीजिये , मैंने कहा आतुर हूँ इरशाद कीजिये " पेड़ों पर फूले हैं लाल पीले पलाश , धरती है नीचे ऊपर नीला आकाश " मन ही मन कहा मैंने हाय तेरा सत्यानाश , प्रकट में बोला किंतु वाह बेटा शाबाश कविता तो तुम्हारी बड़ी चोटी की है, रचना यह अति उच्चकोटी की है निर्भय हो इसी भांति कविता करते रहो, साहित्याकाश में छुट्टा विचरते रहो ! कमल

पुस्तकें

पुस्तकें गूढ तत्वज्ञान की भंडार थीं वे पुस्तकें जिन्हें सहेज रखना मैंने कभी जाना नहीं शायद उन पुस्तकों ने मुझे भी कभी अपना संरक्षक सा माना नहीं उन्हें खोला था पढ़ा था फ़िर उनमें खोया था पर जब वे खो गयीं तो बहुत रोया था कमल

Friday, July 31, 2009

एक हास्य-गीत प्रस्तुत कर रहा हूँ आलोचना का स्वागत है !

" एरियर की उड़ान "

प्रिये न चिंता करना तुम एरियर शीघ्र आनेवाला है

टी० वी० फ्रिज का स्वप्न पुराना अब रंग लाने वाला है

अर्थ-तंत्र हो भले जूझता दुखदायी महेंगाई से ,

किंतु प्रशासन सरकारी झंडा फहराने वाला है

कुछ जुगाड़ कर जोड़ तोड़ कर बिल-बाबू को पटा लिया है,

थोडी बहुत धौस पट्टी से काम निकल आने वाला है

बनिए से मन-माफिक चीज़ें सब उधार लेलेना तुम,

चेक मिलते ही समझो क़र्ज़ उतर जाने वाला है

एक दो नहीं दर्ज़न भर साड़ी की बुकिंग करा देना ,

देर सवेर हुई तो क्या सावन सठियाने वाला है

घटिया चप्पल, बिछिया पायल सभी बादल दूँगा आकर ,

हाथ तुम्हारा चूड़ी कंगन से लद जाने वाला है

रक्षा-बंधन पर ढेर मिठाई मंगवा कर रख लेना तुम,

बेरोज़गारी का मारा वह आख़िर मेरा साला है

कमल

Wednesday, July 22, 2009

कविता - अस्ताचलगामी

"अस्ताचलगामी " मेरे देवता ! तुमने, मुझसे कुछ माँगा नहीं , मैंने ही सदा तुमसे बहुत कुछ पाया है , अंतस में तुमने जो पीड़ा-लोक धर दिया अक्षर अक्षर वही ढर कर बाहर आया है ह्रदय की कसक पलकों में समेट दृग-जल भर लिए , छटपटाती आह ने सृजन की चाह ने वेदना को स्वर दिए गीतों में उभरा जो तुम्हारा ही साया है ! मुझमें तुम्हारी अमानत जो शेष है मैंने वह तुम्हें ही सौपने की ठानी है क्योंकि मेरी काया में समाया तुम्हारा सूर्य संध्या की छाया में अब अस्ताचलगामी है कमल

Saturday, July 18, 2009

प्रस्तुत कविता " अहिल्या का रोष " नारी की अस्मिता और स्वाभिमान की अभिव्यक्ति है आपकी प्रतिक्रिया सादर आमंत्रित है अहिल्या का रोष तुमने धरे चरण मुझ पर , जग ने कहा मैं तर गयी , पाषाण-प्रस्तर से पुनः नारी अहिल्या बन गयी मतिहीन गति अवरुद्ध थी निष्पंद थी निष्प्राण थी, अब हो गई वह शुद्ध क्या अभिशप्त जो पाषाण थी ? एक अबला पर निरंतर पुरूष-पौरुष का प्रदर्शन , दंड की भागी वही क्यों क्या यही है न्याय-दर्शन ? बन गई पत्थर वहीँ सुन मनुज का वह श्राप , मौन हो सहती रही सब शीत वर्षा ताप का संताप पुरूष-प्रधान व्यवस्था में क्यानारी के ही लिए दंड हो ? जैसे नारी नारी न हो, चिर-अभिशप्त शिला-खंड हो ? छल किया ,वह पा गया नभ का अतुल साम्राज्य , और मैं जो छली गयी वह बनी क्योंकर त्याज्य ? इस समाज के शब्द-कोष में पतिव्रता के साथ पत्नीव्रता , जुड़ न पाया शब्द अब तक हुई नारी ही कलंकित सर्वदा पाषाणों की भी गरिमा है यद्यपि मूक अंतर्मुखी हैं, पर छिपे इनके गर्भ में आक्रोश के ज्वालामुखी हैं जब कभी फट जायेंगे यह तब प्रलय मच जायगी। उस दिन तुम्हारी स्रष्टि क्या संहार से बच पाएगी ? मैं बनी पाषाणी तो क्या चाहा न था यों मुक्त होना अस्मिता तज चरण-रज से मॉस-मज्जा -युक्त होना नहीं राम ! पग-धूलि नहीं अब समता का व्योहार चाहिए, नर -समाज में बराबरी का स्वयं-सिद्ध अधिकार चाहिए जन्म-सिद्ध अधिकार चाहिए कमल ahutee@gmail.com

Thursday, July 16, 2009

बरसो रे घन

बरसो रे घन ! अभिषिक्त करो तुम प्रकृति-नटी का चिर-सुरमई सलोनापन बरसो रे घन ! कब तक बोझिल अंतरतम में, भरे रहोगे वर्षा का जल कब तक प्यासा बना रहेगा, तप्त-धारा का अंतस्तल ? कब तक सूनी राह निहारेगा, विरही मन ! आओ प्रियतम ! बरसो रे घन सभी दिशाओं का काजल आँचल में समेट बरबस कब तक पावस की पूनम, बनी रहेगी रात अमावस ? मन बंदी असहाय सघन-घन चंदा बंदी बदली-वन ! व्याकुल चकोर मन ! बरसो रे घन ! मनुहारों में घुट कर साजन, बीत न जाए सारा सावन पल पल बेकल बाट जोहता मेरा विव्हल अनुरागी मन ! चिर-अतृप्त रस-सिक्त करो, प्राणों को परितृप्त करो ऋतु बने सुहावन ! बरसो रे घन ! कमल घन चकोर मन !

Sunday, June 14, 2009

दीप और शलभ

दीप और शलभ (शमा - परवाना ) की युगल प्रेमी के रूप में उपमाओं से साहित्य का भंडार भरा है । पर एक दिन जब मैंने इन दोनों की " तू तू मैं मैं " सुनी तब से दुविधा में पड़ गया हूँ। उनके इस वाक-युद्ध पर स्पष्टीकरण के लिए आपको सादर आमंत्रित कर रहा हूँ ।

दीप - शलभ संवाद

मचलते शलभ ने कहा दीप से,

मौत मेरी तेरी ज़िन्दगी का सफर है

मेरे तरुण प्राण की आहुती पर

युगों से रही ज्योति तेरी अमर है ।

की नीयत

कीट के व्यंग से तिलमिला कर दिए ने

तिरस्कार में सिर हिला कर कहा

उन्माद का एक आवेग था

प्यार की राह में जो सुलगता रहा ।

नियति की नीयत se रहा अविचलित

तापस अंधेरे ki आराधना हूँ,

जलता रहा साथ चलता रहा

बावले उस तिमिर की सफल साधना हूँ !

कमल

Saturday, June 13, 2009

कुछ स्वछन्द करुण-रस छंद

कुछ " स्वछन्द करुण-रस छंद " धवस्त कर मेरा स्वप्नागार प्रिय गए तुम जाने किस लोक , हो गई तापस किरण विलीन निविड़ तम में प्रकाश का लोप ! खो गया पल में हास-निवेश लुटा सुख-स्वप्नों का परिवेश, सजग स्मृतियों के अवशेष , भर गए अंतस में चिर-क्लेश ! नियति की निष्ठुरता का दंश धर गया प्राणों में विष घोल , भर गए अंतस में अभिशाप ये कैसा वरदानों का मोल ? हृदय में मचता हाहाकार वियोगी मन की सुन चीत्कार , अनल सम लगती मलय-बयार मेघ बरसे झरते अंगार , लिए हूँ अधरों पर मुस्कान छिपाए उर में दावानल , जलाये नभ पर तारक-दीप अमा रोती धोती काजल !

कमल ahutee@gmail.com

Friday, June 12, 2009

ज़िन्दगी की शाम

झुर्रिओं भरा चेहरा... गंजे सिर पर इक्का दुक्का सफ़ेद बाल ... मैली बनियायन से झांकती सिकुड़ रही खाल... किसी मध्यवर्गीय परिवार के उस वृद्ध को दरवाजे पर पुराणी कुर्सी में बैठे एक अल-सुबह निराश दृष्टि से आसमान ताकते देखा था। वह आकृति दिन भर मन को मथती रही और रात कविता बन कागज़ पर बिछ गई । अतीत के इस संयोग को पाठकों के साथ बांटना चाहता हूँ। :- "संघर्ष-शील जीवन की शाम " अभी जीवन शेष साथी है अभी उम्मीद बाकी कठिन परिश्रम संघर्षों की, पारियों के सफल नायक, जर्जरित तन व्यथित मन ,तुम न थक कर बैठ जाना ज़िन्दगी की शाम पर घिरते अंधेरे लाँघ जाना भोर के आकाश का आलोक मुठिओं भर लूट लाना। और यूँ अगवा किए आलोक में डूबा लेना रात अमा की ! बिखरते परिवार के परिवेश में, दर्द बनता पीढियों का अंतराल कौन जाने कहाँ जा कर थमेगा इस सदी का मोह-माया-जाल । तुम उपेक्षा का घिनोना गरल पी, कंठ में रख कर जमा लेना और अपनों से मिले अपमान की घूंट कड़वी सब पचा लेना। सह रही है घाव सब कुछ और सह लेगी ये छाती ताकते क्या हो तुम्हें कब रोक पायीं चिर-अगम आकाश की मजबूरियां अरे तुमने तो उछल कर नाप डालीं ,सौरमंडल के ग्रहों की दूरियां उम्र की दहलीज़ पर घिरते तमस के पार जाना , भय न खाना चिर-सृजन का बीज तुम, अमरत्व पी कर लौट आना सृष्टि का वरदान हो तुम अंकुरण की अमर थाती अभी जीवन शेष साथी है अभी उम्मीद बाक़ी कमल ahutee@gmail.com

Tuesday, June 2, 2009

ग़ज़ल

ग़ज़ल प्रीति के सिद्ध सूत्र सब बिसारती रहो , मधु-निशा के निमंत्रण नकारती रहो । जिन पलों के लिए मन तरसता रहे, उन पलों के सगुन तुम बिगाड़ती रहो। छांव पल भर कभी मिल न पाये कहीं, हर मरुथल को पथ पर उतारती रहो। प्राण प्यासे फिरें मृग-मरीचिका में, दृष्टि-पथ पर खड़ी तुम निहारती रहो। प्रीति के चाँद पल यूँ बिछुड़ जांएगे , अधखुले कुन्तलों को संवारती रहो। ज़िन्दगी का सफर इतना आसां नहीं चाहे जो शोखियाँ तुम बघारती रहो। हरसिंगार फूल से गीत झरते "कमल" मीत तुम बिन छुए ही बुहारती रहो। कमल ahutee@gmail.com

Monday, May 25, 2009

" हृदय रोता है "

हृदय रोता है। प्रिये तुम्हारे स्मृति-कोष का विस्तार सहेज पाने में, आकाश,दिशाएँ, सौरमंडल बहुत छोटा है। यादों के महासागर से उठा पीड़ा का सघन घन, धीरज का बाँध तोड़ पलकें भिगोता है निशा की निस्तब्धता में तारक-वालियों के बीच , निगाहें भटकती हैं आसरा खोता है। काश ! तुम्हें समझा पाता उम्र के इस पडाव पर, तुमसे बिछुड़ने का संताप क्या होता है। हृदय रोता है। कमल - ahutee@gmail.com

Friday, May 22, 2009

ग़ज़ल

ग़ज़ल
ज़िन्दगी के सफर में मिले हमसफ़र,
साथ में चल पड़े कारवां जोड़ कर
तूफां आए तो कुछ खो गए बा सफर,
अपनी यादों के गहरे निशां छोड़ कर
यूँ चमन में खिले फूल ढेरों मगर,
ले गए सब के सब बागबाँ तोड़कर
अपनी खानाबदोशी की पहचान थी ,
फाकेमस्ती लुटी के किस छोर पर
टूटा तारा उठी आसमां पर नज़र,
चलबसा दिलज़ला ये जहाँ छोड़ कर
अपनी रातें कटीं कर्बला में कई ,
दर से गुज़रे मगर यार मुंह मोड़ कर
दर्देदिल अपना कुछ यों बयां कर `कमल`
सो गया कब्र में फ़िर कफ़न ओढ़ कर
कमल ahutee@gmail.com

Sunday, May 17, 2009

स्मरण के क्षण

पुण्य-स्मृति दिवस
पुण्य-स्मृति -दिवस का
प्राणों से अटूट नाता है
पीर अंतस में उमड़ती है
बाँध धीरज का टूट जाता है
बीते क्षण प्राणवंत बन
मन को जब डसते हैं,
निष्ठुर अतीत के स्मरण
अश्रु-कण बन बरसते हैं
सुधियों के काल -खंड जब
मानस-पटल पर छाते हैं,
इक अबूझ अंतर्वेदना में
प्राण छटपटाते हैं
और तब तुम्हारी मधुर
यादों में खो जाता हूँ,
तुम्हें भीगी पलकों में
बंद कर सो जाता हूँ
कमल

Sunday, May 10, 2009

माँ

मैं चिर कृतज्ञ माता तेरा तुमने जो प्यार दुलार दिया, नित संघर्षों से जूझ स्वयं मुझ पर सारा सुख वार दिया। करते मनुहार नहीं थकती माँ मेरी ममता में अटकीं तीरथ पैगम्बर पीर सभी के तीर लिए मुझको भटकीं । क्या मजाल मुझको लगने दी हवा कभी आभावों की, मेरी दुखती रग सहलातीं, तुम भुला पीर निज घावों की। तुमने दोनों बांह पकड़ जब धरती पर चलना सिखलाया , मंजिलें पार करने का साहस स्वतः मेरे कदमों ने पाया। तेरे आशीर्वचन कवच बन रहते सदा मुझे घेरे, विजयश्री के वरदान बने तव वरदहस्त सर पर मेरे। जब जब मुझे दसा दुनिया ने (Dasa) विष दांतों की तीव्र चुभन से, गरल बन गया अमृत माता एक तुम्हारी मधुर छुवन से। मैं हूँ सतत र्रिनी तेरे उपकारों की बौछारों का, तेरे आँचल की छाया में पलती ममता मनुहारों का । गीतों की इस पुष्पांजलि में श्रद्धा के सुमन सजाये हैं, तुमने स्वर दिए सदा इनको जो गीत बनाए गाये हैं। अपने आँचल से धक लेना चिर-निद्रा जब सो जाऊं मैं, माता बन पुनः जनम देना जब जब धरती पर आऊं मैं. kamal ahutee@gmail.com

Sunday, April 12, 2009

चुनावी दोहे

भारी लग्न चुनाव की नेता खक्खासाह ,
ठौर ठौर पर हो रहे नोट वोट के ब्याह
नोट बटे तो वोटर ने शिकवे सारे दिए बिसार,
मतदाता मतपाता से गले मिले साभार
ज्योतिषियों की धूम मची है पोथी पत्रा रहे विचार
नेता जीते या हारे पर पगार ना रही उधार
भ्रष्टाचारी, बाहुबली चुन कर बना रहे सरकार,
सजायाफ्ता अपराधी भी मंत्रिपद के दावेदार

न्यायाधीश मूकदर्शक आचारसंहिता तार तार ,

अफसर चमचागीरी में रत सत्ता को सर्वाधिकार

सभी दलों पर अल्पसंख्यकों के वोटों का भूत सवार ,

लंबे चौडे वादे करते मनुहारों की है भरमार

संविधान की मूलभावना होती आयी शर्मसार

व्यक्ति की अभिव्यक्ति पर लगने लगे अंकुश अपार

करें विषवमन सत्ताधारी उनके क्षम्य चुनाव प्रचार ,

पर विपक्ष का वरुण विचारा रासुका का हुआ शिकार

छोड़ साईकिल हाथ जोड़ नेता पहुंचे जय हो दरबार ,

नहीं हाथ पर टिकट मिला तो हाथी पर हो गए सवार

नेताओं के चमचों की पोबारह का बना सुयोग ,

जेब भरी रहती नोटों से मुफ्त छक रहे मोहन भोग . कमल

Friday, April 3, 2009

रामनवमी

अपने युगपुरुषों के प्रति आज शेष कितना संवेदन ? भौतिक सुख के सम्मोहन में निपट स्वार्थरत डूबा मन। चहरे पर सैकड़ों मुखौटे बदला करते है नेतागण उनकी वाक्पटुता पर लज्जित होता स्वयं दशानन रावन । रामजन्मदिन रामलला के मन्दिर का दोहराते प्रण "प्राण जाएँ पर जाए ना वचन" कहाँ कभी होता पालन । सत्तासुख-सुविधा त्यागें करे लोकहित अर्पण तन-मन ऐसे कितने तत्पर होंगे राजपाट ताज करें वन गमन। महापर्व पर चिंतन मनन और कर सकें निज को अर्पण आत्मसात कर लें जीवन में पग पग पर उनके आचरण । मर्यादा-पुरुषोत्तम राम अर्चन वंदन करे सदा मन उनमें रच-बस कर ही होगा नित मर्यादाओं का पालन । _______________ रामनवमी राम का ही जन्म-दिन केवल नहीं श्री रामचरित-मानस का भी जन्म-दिन होता यही। आदर्श -पुरूष श्री राम की जीवनगाथा गाईये , परिवार में सबको समेत राम-कथा सुनाईये । "कमल"

Sunday, January 11, 2009

ग़ज़ल

शायरी का सफर है ये कैसी कशिश ताजगी की इधर किसकी खुशबू से महकी हुई है सहर । जिंदगी का ये कैसा अनोखा पहर जिसमें बहने लगी शायरी की लहर। इस चमन के कभी हम परिंदे न थे ख़ुद-ब-ख़ुद `पर` खींच लाये इधर। अपनी ऐसी कोई बेबसी भी न थी चल पड़े जो कदम इस नयी राह पर । अटपटी सी डगर का मुसाफिर `कमल` ख़त्म होगा कहाँ शायरी का सफर।

Monday, January 5, 2009

तमस से लड़ता रहूँगा

काल को निज मुट्ठियों में बंद कर, आलोक से अनुबंध कर मैं तमस से लड़ता रहूँगा । आतंकवाद की सुनामी प्रलयगामी लहर से, मैं कब डरा हूँ । कारगिल के हिम शिखर पर चढ़ विजय का ध्वज लिए, देखो खड़ा हूँ । रोक पायेगा मुझे आकाश क्या, नित ग्रहों के भाल पर पदचिन्ह मैं जड़ता रहूँगा। \ स्रष्टि के आरम्भ से मैं मृत्यु को अगवा किए , नित हलाहल पीता रहा हूँ । सिन्धु के अमृत-कलश का दान अस्वीकार कर, मैं शान से जीता रहा हूँ। गरल तुम जितना मथोगे, नीलकंठ बना हुवा मैं , आचमन करता रहूँगा । तुम प्रलय के प्रेत जग में घोर तम से अवतरित, विध्वंस में तत्पर रहो । आतंक के ज्वालामुखी ले विश्व में सक्रिय बने, नित रक्त से खप्पर भरो । अमरत्व का वरदान मुझको, मैं सृजन का बीज हूँ, अंकुरित बढ़ता रहूँगा । दहकते अंगार बरसाते रहो , स्वर्ण हूँ तपकर स्वयं , आलोकमय कुंदन बनूँगा । भस्म कर दो सृष्टि को तुम, प्राण हूँ मैं संचारित हो , पुनः जगजीवन बनूंगा । ध्वंस पर निर्माण का संकल्प ले , मैं विजय अभियान के , सोपान पर चढ़ता रहूँगा । तुम सृजन के प्राणघातक मैं प्रकृति का प्राण-वाहक , स्रष्टि का हूँ सजग प्रहरी । पार्थ का गांडीव ले अन्याय को ललकारता हूँ, मैं न सोता नींद गहरी । कटु-प्रहारों को तुम्हारे , शक्ति-सर संधान कर मैं, विफलता मढ़ता रहूँगा । स्याह-लेखन में निरत बन,तुम कलंकित अनवरत, साहित्य को करते रहो। वांग्मय के धवल अंचल पर परत-डर-परत काजल पोत कर धरते रहो। मैं असत की चीर चादर, सत्य बंधन-मुक्त कर, हुंकार नित भरता रहूँगा। तमस से लड़ता रहूँगा। ( स्पेल्लिंग मिस्टेक्स रोमन से देवनागरी लिपि लेने के कारण हैं। क्षमा चाहूँगा ..... कमल। )